न्यायपालिका की जवाबदेही पर सवाल: ‘बर्न्ट नोट्स’ घोटाले में जस्टिस यशवंत वर्मा के खिलाफ FIR की मांग

न्यायपालिका की जवाबदेही पर सवाल: ‘बर्न्ट नोट्स’ घोटाले में जस्टिस यशवंत वर्मा के खिलाफ FIR की मांग

भारतीय संविधान हर नागरिक को कानून के समक्ष समानता और न्याय का अधिकार देता है। लेकिन जब न्यायपालिका ही सवालों के घेरे में हो, तो देश की न्याय प्रणाली पर गहरा प्रभाव पड़ता है। दिल्ली हाई कोर्ट के न्यायमूर्ति यशवंत वर्मा का नाम ‘बर्न्ट नोट्स’ घोटाले में सामने आने के बावजूद अब तक उनके खिलाफ FIR दर्ज नहीं हुई है, जिससे न्यायपालिका की जवाबदेही और पारदर्शिता को लेकर बहस तेज हो गई है।

विशेषाधिकार या कानूनी अपवाद?

भारत में कानून का सिद्धांत कहता है कि कोई भी व्यक्ति कानून से ऊपर नहीं है। फिर भी, सुप्रीम कोर्ट की संविधान पीठ ने K. Veeraswami बनाम भारत संघ (1991) मामले में यह व्यवस्था दी थी कि किसी भी उच्च न्यायालय या सर्वोच्च न्यायालय के न्यायाधीश के खिलाफ FIR दर्ज करने से पहले भारत के मुख्य न्यायाधीश से अनुमति लेना अनिवार्य होगा। यह निर्णय पुलिस को उनके कानूनी कर्तव्यों के निर्वहन से रोकता है और न्यायाधीशों के लिए एक विशेषाधिकार प्राप्त वर्ग तैयार करता है।

हालांकि अधिकांश न्यायाधीश निष्ठा और ईमानदारी से कार्य करते हैं, लेकिन अपवाद भी सामने आए हैं। जस्टिस निर्मल यादव के मामले के बाद अब जस्टिस यशवंत वर्मा से जुड़े विवाद ने न्यायपालिका की निष्पक्षता पर सवाल खड़े कर दिए हैं। विशेष रूप से POCSO अधिनियम जैसे गंभीर मामलों में भी Veeraswami फैसले के कारण जांच प्रभावित हो रही है, जिससे न्यायिक पारदर्शिता पर गहरा असर पड़ा है।

जस्टिस वर्मा पर लगे आरोप और FIR में देरी क्यों?

इस घोटाले में जस्टिस वर्मा का नाम सामने आने के बावजूद FIR दर्ज नहीं की गई, जिससे कई अहम सवाल उठ रहे हैं:

  • 14 मार्च को घटना के दिन ही FIR दर्ज क्यों नहीं हुई?
  • अब तक कोई गिरफ्तारी क्यों नहीं हुई और जब्त धन को आधिकारिक रूप से क्यों नहीं दर्ज किया गया?
  • मामले की जानकारी सार्वजनिक होने में एक हफ्ते की देरी क्यों हुई?
  • जब गृह मंत्रालय और अन्य एजेंसियों के पास घटना के वीडियो और रिकॉर्ड थे, तो सुप्रीम कोर्ट और कॉलेजियम ने इसे तुरंत सार्वजनिक क्यों नहीं किया?

क्या जस्टिस वर्मा निर्दोष हैं?

जस्टिस वर्मा ने अपने स्पष्टीकरण में कहा कि वह बरामद धन के मालिक नहीं हैं और उन्हें इस बारे में कोई जानकारी नहीं थी। यदि यह सही है, तो उन्होंने खुद पुलिस को सूचित क्यों नहीं किया? अगर उनके खिलाफ साजिश रची गई, तो उन्होंने FIR दर्ज क्यों नहीं करवाई?

यह मामला भ्रष्टाचार के माध्यम से अर्जित काले धन का एक स्पष्ट उदाहरण प्रतीत होता है। अगर जस्टिस वर्मा निर्दोष हैं, तो भी FIR दर्ज न होने से शक गहराता है। यह केवल न्यायपालिका की साख ही नहीं, बल्कि पूरे कानून व्यवस्था पर प्रश्नचिह्न लगा रहा है।

केवल आंतरिक जांच पर्याप्त नहीं, निष्पक्ष जांच जरूरी

सुप्रीम कोर्ट कॉलेजियम ने इस मामले की जांच के लिए एक आंतरिक समिति गठित की है, लेकिन FIR दर्ज करने का आदेश नहीं दिया। इससे न्यायपालिका की पारदर्शिता और जवाबदेही कमजोर होती है। वकीलों और नागरिकों की जिम्मेदारी बनती है कि यदि जस्टिस वर्मा दोषी पाए जाते हैं, तो उनके खिलाफ आपराधिक मुकदमा चलाया जाए। सिर्फ महाभियोग पर्याप्त नहीं होगा— कानून के शासन को बनाए रखने के लिए सख्त कानूनी कार्रवाई जरूरी है।

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